किताबे-वह्य के बयान में (Sahih Bukhari#1) Hindi Hadish

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Sahih Bukhari#1 :---- आप (सल्ल०) फ़रमा रहे थे कि तमाम आमाल का दारोमदार नीयत पर है और हर अमल का नतीजा हर इन्सान को उसकी नीयत के मुताबिक़ ही मिलेगा। इसलिये जिसकी हिजरत (तर्के-वतन) दौलते-दुनिया हासिल करने के लिये हो या किसी औरत से शादी की ग़रज़ हो। इसलिये उसकी हिजरत उनही चीज़ों के लिये होगी जिनके हासिल करने की नीयत से उसने हिजरत की है। 
 

Sahih Bukhari#2:--- एक शख़्स हारिस-बिन-हिशाम नामी ने नबी करीम (सल्ल०) से सवाल किया था कि या रसूलुल्लाह! आप पर वह्य कैसे नाज़िल होती है? आप (सल्ल०) ने फ़रमाया कि वह्य नाज़िल होते वक़्त कभी मुझको घंटी की सी आवाज़ महसूस होती है और वह्य की ये कैफ़ियत मुझ पर बहुत शाक़ (दिल पर बोझ) गुज़रती है। जब ये कैफ़ियत ख़त्म होती है तो मेरे दिल और दिमाग़ पर इस (फ़रिश्ते) के ज़रिए नाज़िल हुई। वह्य महफ़ूज़ हो जाती है और किसी वक़्त ऐसा होता है कि फ़रिश्ता शक्ल का इन्सान मेरे पास आता है और मुझसे कलाम करता है। इसलिये मैं उसका कहा हुआ याद रख लेता हूँ। आयशा (रज़ि०) का बयान है कि मैंने सख़्त कड़ाके की सर्दी मैं नबी करीम (सल्ल०) को देखा है कि आप (सल्ल०) पर वह्य नाज़िल हुई। और जब उसका सिलसिला रुका तो आप (सल्ल०) की पेशानी पसीने से शराबोर थी।

Sahih Bukhari#3:-----  नबी करीम (सल्ल०) पर वह्य का शुरूआती दौर अच्छे सच्चे और पाकीज़ा ख़्वाबों से शुरू हुआ। आप (सल्ल०) ख़्वाब में जो कुछ देखते वो सुबह की रौशनी की तरह सही और सच्चा साबित होता। फिर क़ुदरत की तरफ़ से आप (सल्ल०) तन्हाई पसन्द हो गए और आप (सल्ल०) ने ग़ारे-हिरा मैं ख़िलवत नशीनी (एकान्तवास) इख़्तियार फ़रमाई और कई-कई दिन और रात वहाँ मुसलसल इबादत और यादे-इलाही और ज़िक्र और फ़िक्र मैं मशग़ूल रहते। जब तक घर आने को दिल न चाहता तोशा (खाने-पीने का सामान) साथ लिये हुए वहाँ रहते। तोशा ख़त्म होने पर ही बीवी मोहतरमा ख़दीजा (रज़ि०) के पास तशरीफ़ लाते और कुछ तोशा साथ ले कर फिर वहाँ जा कर ख़िलवत गुज़ीं (एकान्तवासी) हो जाते,  यही तरीक़ा जारी रहा यहाँ तक कि आप (सल्ल०) पर हक़ खुल गया और आप (सल्ल०) ग़ारे-हिरा ही में क़ियाम पज़ीर थे कि अचानक जिब्राईल (अलैहि०) आप (सल्ल०) के पास हाज़िर हुए और कहने लगे कि ऐ मुहम्मद! पढ़ो आप (सल्ल०) फ़रमाते हैं कि मैंने कहा कि मैं पढ़ना नहीं जानता।  आप (सल्ल०) फ़रमाते हैं कि फ़रिश्ते ने मुझे पकड़ कर इतने ज़ोर से भींचा कि मेरी ताक़त जवाब दे गई।  फिर मुझे छोड़ कर कहा कि पढ़ो!  मैंने फिर वही जवाब दिया कि मैं पढ़ा हुआ नहीं हूँ। इस फ़रिश्ते ने मुझको बहुत ही ज़ोर से भींचा कि मुझको सख़्त तकलीफ़ महसूस हुई।  फिर उसने कहा कि पढ़! मैंने कहा कि मैं पढ़ा हुआ नहीं हूँ। फ़रिश्ते ने तीसरी बार मुझको पकड़ा और तीसरी मर्तबा फिर मुझको भींचा, फिर मुझे छोड़ दिया और कहने लगा कि पढ़ो! अपने रब के नाम की मदद से जिसने पैदा किया और इन्सान को ख़ून की फुटकी से बनाया।  पढ़ो और आपका रब बहुत ही मेहरबानियाँ करने वाला है। इसलिये यही आयतें आप (सल्ल०) जिब्राईल (अलैहि०) से सुन कर इस हाल में ग़ारे-हिरा से वापस हुए कि आप (सल्ल०) का दिल इस अनोखे वाक़िए से काँप रहा था। आप (सल्ल०) ख़दीजा के यहाँ तशरीफ़ लाए और फ़रमाया कि मुझे कम्बल ओढ़ा दो, मुझे कम्बल उढ़ा दो। लोगों ने आप (सल्ल०) को कम्बल उढ़ा दिया। जब आप (सल्ल०) का डर जाता रहा। तो आप (सल्ल०) ने अपनी बीवी मोहतरमा ख़दीजा (रज़ि०) को तफ़सील के साथ ये वाक़िआ सुनाया। और फ़रमाने लगे कि मुझको अब अपनी जान का ख़ौफ़ हो गया है। आप (सल्ल०) की बीवी मोहतरमा ख़दीजा (रज़ि०) ने आप (सल्ल०) को ढारस बँधाई और कहा कि आपका ख़याल सही नहीं है। अल्लाह की क़सम! आप को अल्लाह कभी रुसवा नहीं करेगा।  आप तो बेहतरीन अख़लाक़ के मालिक हैं। आप तो कुंबा परवर हैं।  बे-कसों का बोझ अपने सिर पर रख लेते हैं,  मुफ़लिसों के लिये आप कमाते हैं,  मेहमान नवाज़ी मैं आप बे-मिसाल हैं और मुश्किल वक़्त मैं आप हक़ का साथ देते हैं। ऐसी ख़ूबियों वाला इन्सान इस तरह बे-वक़्त ज़िल्लत और ख्व़ारी की मौत नहीं पा सकता। फिर मज़ीद तसल्ली के लिये ख़दीजा (रज़ि०) आप (सल्ल०) को वरक़ा-बिन-नौफ़ल के पास ले गईं  जो उनके चचा ज़ाद भाई थे और ज़मानाए-जाहिलियत मैं नसरानी (ईसाई) मज़हब इख़्तियार कर चुके थे और इबरानी ज़बान के कातिब थे;  चुनांचे इंजील को भी हसबे-मंशाए-ख़ुदावन्दी इबरानी ज़बान में लिखा करते थे। (इंजील सुर्यानी ज़बान में नाज़िल हुई थी। फिर उसका तर्जमा इबरानी ज़बान में हुआ। वरक़ा उसी को लिखते थे) वो बहुत बूढ़े हो गए थे यहाँ तक कि उनकी आँख की रौशनी भी रुख़सत (ख़त्म) हो चुकी थी। ख़दीजा (रज़ि०) ने उन के सामने आप (सल्ल०) के हालात बयान किये और कहा कि ऐ चचा ज़ाद भाई! अपने भतीजे (मुहम्मद (सल्ल०)) की ज़बानी ज़रा उन की कैफ़ियत सुन लीजिये वो बोले कि भतीजे आप ने जो कुछ देखा है  उसकी तफ़सील सुनाओ। चुनांचे आप (सल्ल०) ने अव्वल से आख़िर तक पूरा वाक़िआ सुनाया।  जिसे सुन कर वरक़ा बे इख़्तियार हो कर बोल उठे कि ये तो वही हस्ती (पाकबाज़फ़रिश्ता) है जिसे अल्लाह ने मूसा (अलैहि०) पर वह्य देकर भेजा था। काश! मैं आपके इस अहदे-नुबूवत के शुरू होने पर जवान उम्र होता। काश! मैं उस वक़्त तक ज़िन्दा रहता जबकि आपकी क़ौम आप को इस शहर से निकाल देगी। रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने ये सुन कर ताज्जुब से पूछा कि क्या वो लोग मुझको निकाल देंगे? (हालाँकि मैं तो उन मैं सच्चा और अमीन और मक़बूल हूँ) वरक़ा बोले हाँ ये सब कुछ सच है। मगर जो शख़्स भी आपकी तरह बात हक़ ले कर आया लोग उसके दुश्मन ही हो गए हैं। अगर मुझे आपकी नुबूवत का वो ज़माना मिल जाए तो मैं आपकी पूरी-पूरी मदद करूँगा। मगर वरक़ा कुछ दिनों के बाद इंतिक़ाल कर गए। फिर कुछ वक़्त तक वह्य का आना रुका रहा।
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Sahih Bukhari#4:------  आप (सल्ल०) ने वह्य के रुक जाने के ज़माने के हालात बयान फ़रमाते हुए कहा कि एक दिन में चला जा रहा था कि अचानक मैंने आसमान की तरफ़ एक आवाज़ सुनी और मैंने अपना सिर आसमान की तरफ़ उठाया। क्या देखता हूँ कि वही फ़रिश्ता जो मेरे पास ग़ारे-हिरा मैं आया था वो आसमान और ज़मीन के बीच में एक कुर्सी पर बैठा हुआ है। मैं उससे डर गया और घर आने पर मैंने फिर कम्बल ओढ़ने की ख़ाहिश ज़ाहिर की। उस वक़्त अल्लाह पाक की तरफ़ से ये आयात नाज़िल हुईं। ऐ लिहाफ़ ओढ़ कर लेटने वाले! उठ खड़ा हो और लोगों को अज़ाबे-इलाही से डरा और अपने रब की बड़ाई बयान कर और अपने कपड़ों को पाक साफ़ रख और गन्दगी से दूर रह। उसके बाद वह्य तेज़ी के साथ पै दर पै आने लगी। इस हदीस को यहया-बिन-बुकैर के अलावा लैस-बिन-सअद से अब्दुल्लाह-बिन-यूसुफ़ और अबू-सालेह ने भी रिवायत किया है। और अक़ील के अलावा ज़ोहरी से हिलाल-बिन-रवाद ने भी रिवायत किया है। यूनुस और मअमर ने अपनी रिवायत में लफ़्ज़ ( فواده ) की जगह ( بوادره ) नक़ल किया है।

Sahih Bukhari#5 :-----  उन्होंने इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से कलाम इलाही ( لا تحرك به لسانك لتعجل به ) की तफ़सीर के सिलसिले में सुना कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) नुज़ूले-क़ुरआन के वक़्त बहुत सख़्ती महसूस फ़रमाया करते थे और उसकी (अलामतों) में से एक ये थी कि याद करने के लिये आप अपने होंटों को हिलाते थे। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने कहा, मैं अपने होंट हिलाता हूँ जिस तरह आप हिलाते थे। सईद कहते हैं, मैं भी अपने होंट हिलाता हूँ जिस तरह इब्ने-अब्बास (रज़ि०) को मैंने हिलाते देखा। फिर उन्होंने अपने होंट हिलाए। (इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने कहा) फिर ये आयत उतरी कि ऐ मुहम्मद! क़ुरआन को जल्दी-जल्दी याद करने के लिये अपनी ज़बान न हिलाओ। उसका जमा कर देना और पढ़ा देना हमारे ज़िम्मे है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) कहते हैं, यानी क़ुरआन आप (सल्ल०) के दिल में जमा देना और पढ़ा देना हमारे ज़िम्मे है। फिर जब हम पढ़ चुकें तो इस पढ़े हुए की पैरवी करो। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) फ़रमाते हैं (इसका मतलब ये है) कि आप उसको ख़ामोशी के साथ सुनते रहो। उसके बाद मतलब समझा देना हमारे ज़िम्मे है। फिर यक़ीनन ये हमारी ज़िम्मेदारी है कि आप उसको पढ़ो (यानी उसको महफ़ूज़ कर सको) चुनांचे उसके बाद जब आप के पास जिब्राईल (अलैहि०) (वह्य ले कर) आते तो आप (तवज्जोह से) सुनते। जब वो चले जाते तो रसूलुल्लाह (सल्ल०) इस (वह्य) को इसी तरह पढ़ते जिस तरह जिब्राईल (अलैहि०) ने उसे पढ़ा था।
Sahih Bukhari#6:-----  
रसूलुल्लाह (सल्ल०) सब लोगों से ज़्यादा जव्वाद ( सख़ी ) थे और रमज़ान में (दूसरे औक़ात के मुक़ाबले में जब) जिब्राईल (अलैहि०) आप (सल्ल०) से मिलते बहुत ही ज़्यादा सख़ावत और करम फ़रमाते। जिब्राईल (अलैहि०) रमज़ान की हर रात में आप (सल्ल०) से मुलाक़ात करते और आप (सल्ल०) के साथ क़ुरआन का दौरा करते। ग़रज़ नबी करीम (सल्ल०) लोगों को भलाई पहुँचाने मैं बारिश लाने वाली हआ से भी ज़्यादा सख़ावत और करम फ़रमाया करते थे।

Sahih Bukhari#7:-----. 
हिरक़्ल (शाहे-रोम) ने उन के पास क़ुरैश के क़ाफ़ले मैं एक आदमी बुलाने को भेजा और उस वक़्त ये लोग तिजारत के लिये मुल्क शाम गए हुए थे। और ये वो ज़माना था जब रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने क़ुरैश और अबू-सुफ़ियान से एक वक़्ती अहद किया हुआ था। जब अबू-सुफ़ियान और दूसरे लोग हिरक़्ल के पास एलिया पहुँचे, जहाँ हिरक़्ल ने दरबार तलब किया था। उसके पास रोम के बड़े-बड़े लोग (आलिम, वज़ीर, अमीर) बैठे हुए थे। हिरक़्ल ने उनको और अपने तर्जमान को बुलवाया। फिर उनसे पूछा कि तुममें से कौन शख़्स रिसालत के दावेदार का ज़्यादा क़रीबी अज़ीज़ है? अबू-सुफ़ियान कहते हैं कि मैं बोल उठा कि मैं उसका सबसे ज़्यादा क़रीबी रिश्तेदार हों। (ये सुन कर) हिरक़्ल ने हुक्म दिया कि उसको (अबू-सुफ़ियान को) मेरे क़रीब ला कर बिठाओ और उसके साथियों को उसकी पीठ के पीछे बिठा दो। फिर अपने तर्जमान से कहा कि उन लोगों से कह दो कि मैं अबू-सुफ़ियान से उस शख़्स के (यानी मुहम्मद (सल्ल०) के) हालात पूछता हों। अगर ये मुझसे किसी बात मैं झूट बोल दे तो तुम उसका झूट ज़ाहिर कर देना (अबू-सुफ़ियान का क़ौल है कि) अल्लाह की क़सम ! अगर मुझे ये ग़ैरत न आती कि ये लोग मुझको झुटलाएँगे तो मैं आप (सल्ल०) की निस्बत ज़रूर ग़लत-बयानी से काम लेता। ख़ैर पहली बात जो हिरक़्ल ने मुझसे पूछी वो ये कि उस शख़्स का ख़ानदान तुम लोगों में कैसा है? मैंने कहा वो तो बड़े ऊँचे नसब वाले हैं। कहने लगा इससे पहले भी किसी ने तुम लोगों में ऐसी बात कही थी? मैंने कहा, नहीं! कहने लगा अच्छा उसके बड़ों मैं कोई बादशाह हुआ है? मैंने कहा, नहीं! फिर उसने कहा बड़े लोगों ने उसकी पैरवी इख़्तियार की है या कमज़ोरों ने? मैंने कहा, नहीं! कमज़ोरों ने। फिर कहने लगा उसके ताबेदार दिन बढ़ते जाते हैं या कोई साथी फिर भी जाता है? मैंने कहा, नहीं! कहने लगा कि क्या अपने इस दावाए-(नुबूवत) से पहले कभी (किसी भी मौक़े पर) उसने झूट बोला है? मैंने कहा, नहीं! और अब हमारी उस से (सुलह की) एक मुक़र्ररा मुद्दत ठहरी हुई है। मालूम नहीं वो उसमें क्या करने वाला है। (अबू-सुफ़ियान कहते हैं) मैं इस बात के सिवा और कोई (झूट) इस बातचीत में शामिल न कर सका। हिरक़्ल ने कहा, क्या तुम्हारी उस से कभी लड़ाई भी होती है? हमने कहा कि हाँ। बोला फिर तुम्हारी और उसकी जंग का क्या हाल होता है? मैंने कहा लड़ाई डोल की तरह है कभी वो हम से (मैदाने-जंग) जीत लेते हैं, और कभी हम उन से जीत लेते हैं। हिरक़्ल ने पूछा, वो तुम्हें किस बात का हुक्म देता है? मैंने कहा वो कहता है कि सिर्फ़ एक अल्लाह ही की इबादत करो। उसका किसी को शरीक न बनाओ और अपने बाप-दादा की (शिर्क की) बातें छोड़ दो और हमें नमाज़ पढ़ने, सच बोलने, परहेज़गारी और सिला-रहमी का हुक्म देता है। (ये सब सुन कर) फिर हिरक़्ल ने अपने तर्जमान से कहा कि अबू-सुफ़ियान से कह दे कि मैंने तुमसे उसका नसब पूछा तो तुमने कहा कि वो हममें ऊँचे नसब का है और पैग़म्बर अपनी क़ौम में ऊँचे नसब का ही भेजे जाया करते हैं। मैंने तुम से पूछा कि (दावाए-नुबूवत की) ये बात तुम्हारे अन्दर इससे पहले किसी और ने भी कही थी तो तुमने जवाब दिया कि नहीं तब मैंने (अपने दिल में) कहा कि अगर ये बात इससे पहले किसी ने कही होती तो मैं समझता कि उस शख़्स ने भी उसी बात की तक़लीद की है जो पहले कही जा चुकी है। मैंने तुम से पूछा कि उसके बड़ों मैं कोई बादशाह भी गुज़रा है? तुमने कहा कि नहीं। तो मैंने (दिल में) कहा कि उनके बुज़ुर्गों में से कोई बादशाह हुआ होगा तो कह दूँगा कि वो शख़्स (इस बहाने) अपने बाप-दादा की बादशाहत और उनका मुल्क (दोबारा) हासिल करना चाहता है। और मैंने तुमसे पूछा कि इस बात के कहने (यानी पैग़म्बरी का दावा करने) से पहले तुमने कभी उसको बुरा-भला कहने का इलज़ाम लगाया है? तुमने कहा कि नहीं। तो मैंने समझ लिया कि जो शख़्स आदमियों के साथ बुरा-भला कहने से बचे वो अल्लाह के बारे में कैसे झूटी बात कह सकता है। और मैंने तुम से पूछा कि बड़े लोग उसके पैरो होते हैं या कमज़ोर आदमी। तुमने कहा, कमज़ोरों ने उसकी पैरवी की है तो (असल में) यही लोग पैग़म्बरों के मुत्तबेईन और पैरोकार होते हैं। और मैंने तुम से पूछा कि उसके साथी बढ़ रहे हैं या कम हो रहे हैं। तुमने कहा कि वो बढ़ रहे हैं और ईमान की कैफ़ियत यही होती है। यहाँ तक कि वो कामिल हो जाता है और मैंने तुम से पूछा कि आया कोई शख़्स उसके दीन से नाख़ुश हो कर मुर्तद भी हो जाता है? तुमने कहा, नहीं! तो ईमान की ख़ासियत भी यही है जिनके दिलों में उसकी ख़ुशी रच-बस जाए वो उससे लौटा नहीं करते, और मैंने तुमसे पूछा कि आया वो कभी अहद तोड़ते हैं? तुमने कहा, नहीं! पैग़म्बरों का यही हाल होता है कि वो अहद की ख़िलाफ़ वर्ज़ी नहीं करते; और मैंने तुम से कहा कि वो तुमसे किस चीज़ के लिये कहते हैं। तुमने कहा कि वो हमें हुक्म देते हैं कि अल्लाह की इबादत करो। उसके साथ किसी को शरीक न ठहराओ और तुम्हें बुतों की पूजा से रोकते हैं। सच बोलने और परहेज़गारी का हुक्म देते हैं। इसलिये अगर ये बातें जो तुम कह रहे हो सच हैं तो बहुत जल्द वो उस जगह का मालिक हो जाएगा कि जहाँ मेरे ये दोनों पाँव हैं। मुझे मालूम था कि वो (पैग़म्बर) आने वाला है। मगर मुझे ये मालूम नहीं था कि वो तुम्हारे अन्दर होगा। अगर मैं जानता कि इस तक पहुँच सकूँगा तो उससे मिलने के लिये हर तकलीफ़ गवारा करता। अगर मैं उसके पास होता तो उसके पाँव धोता। हिरक़्ल ने रसूलुल्लाह (सल्ल०) वो ख़त मँगाया जो आप ने दह्या कलबी (रज़ि०) के ज़रिए हाकिमे-बसरा के पास भेजा था और उसने वो हिरक़्ल के पास भेज दिया था। फिर उसको पढ़ा तो उसमें (लिखा था) : अल्लाह के नाम के साथ जो बहुत ही मेहरबान और रहम वाला है। अल्लाह के बन्दे और उसके पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल०) की तरफ़ से ये ख़त है शाहे-रोम के लिये। उस शख़्स पर सलाम हो जो हिदायत की पैरवी करे उसके बाद में आपके सामने दावते-इस्लाम पेश करता हूँ। अगर आप इस्लाम ले आएँगे तो (दीन और दुनिया में) सलामती नसीब होगी। अल्लाह आपको दोहरा सवाब देगा और अगर आप (मेरी दावत से) नाफ़रमानी करेंगे तो आपकी रिआया का गुनाह भी आप ही पर होगा। और ऐ अहले-किताब! एक ऐसी बात पर आ जाओ जो हमारे और तुम्हारे बीच बराबर है। वो ये कि हम अल्लाह के सिवा किसी की इबादत न करें और किसी को उसका शरीक न ठहराएँ और न हम में से कोई किसी को अल्लाह के सिवा अपना रब बनाए। फिर अगर वो अहले-किताब (इस बात से) मुँह फेर लें तो (मुसलमानो!) तुम उनसे कह दो कि (तुम मानो या न मानो) हम तो एक अल्लाह के इताअत गुज़ार हैं। अबू-सुफ़ियान कहते हैं : जब हिरक़्ल ने जो कुछ कहना था कह दिया और ख़त पढ़ कर फ़ारिग़ हुआ तो उसके आस-पास बहुत शोर-ग़ुल हुआ; बहुत सी आवाज़ें उठीं और हमें बाहर निकाल दिया गया। तब मैंने अपने साथियों से कहा कि अबू-कब्शा के बेटे (नबी करीम (सल्ल०)) का मामला तो बहुत बढ़ गया (देखो तो) उस से बनी-असफ़र (रोम) का बादशाह भी डरता है। मुझे उस वक़्त से इस बात का यक़ीन हो गया कि नबी करीम (सल्ल०) बहुत जल्द ग़ालिब हो कर रहेंगे। यहाँ तक कि अल्लाह ने मुझे मुसलमान कर दिया। (रावी का बयान है कि) इब्ने-नातूर एलिया का हाकिम हिरक़्ल का दरबारी और शाम के नसारा का लाट पादरी बयान करता था कि हिरक़्ल जब एलिया आया तो एक दिन सुबह को परेशान उठा; तो उसके दरबारियों ने पूछा कि आज हम आपकी हालत बदली हुई पाते हैं। (क्या वजह है?) इब्ने-नातूर का बयान है कि हिरक़्ल नुजूमी (नक्षत्रशास्त्री) था इल्मे-नुजूम मैं वो पूरी महारत रखता था। उसने अपने साथियों को बताया कि मैंने आज रात सितारों पर नज़र डाली तो देखा कि ख़तना करने वालों का बादशाह हमारे मुल्क पर ग़ालिब आ गया है। (भला) इस ज़माने में कौन लोग ख़तना करते हैं? उन्होंने कहा कि यहूद के सिवा कोई ख़तना नहीं करता। सौ उन की वजह से परेशान न हों। सल्तनत के तमाम शहरों मैं ये हुक्म लिख भेजिये कि वहाँ जितने यहूदी हूँ सब क़त्ल कर दिये जाएँ। वो लोग इन्ही बातों में मशग़ूल थे कि हिरक़्ल के पास एक आदमी लाया गया। जिसे शाहे-ग़स्सान ने भेजा था। उसने रसूलुल्लाह (सल्ल०) के हालात बयान किये। जब हिरक़्ल ने (सारे हालात ) सुन लिये तो कहा कि जा कर देखो वो ख़तना किये हुए है या नहीं? उन्होंने उसे देखा तो बतलाया कि वो ख़तना किया हुआ है। हिरक़्ल ने जब उस शख़्स से अरब के बारे में पूछा तो उसने बतलाया कि वो ख़तना करते हैं। तब हिरक़्ल ने कहा कि ये ही (मुहम्मद (सल्ल०)) इस उम्मत के बादशाह हैं जो पैदा हो चुके हैं। फिर उसने अपने एक दोस्त को रूमिया ख़त लिखा और वो भी इल्मे-नुजूम मैं हिरक़्ल की तरह माहिर था। फिर वहाँ से हिरक़्ल हिम्स चला गया। अभी हिम्स से निकला नहीं था कि उसके दोस्त का ख़त (उसके जवाब में) आ गया। उसकी राय भी नबी करीम (सल्ल०) के ज़ुहूर के बारे में हिरक़्ल के मुवाफ़िक़ थी कि मुहम्मद (सल्ल०) (वाक़ई) पैग़म्बर हैं। उसके बाद हिरक़्ल ने रोम के बड़े आदमियों को अपने हिम्स के महल मैं तलब किया और उसके हुक्म से महल के दरवाज़े बन्द कर लिये गए। फिर वो (अपने ख़ास महल से) बाहर आया और कहा: ऐ रोम वालो! किया हिदायत और कामयाबी मैं कुछ हिस्सा तुम्हारे लिये भी है? अगर तुम अपनी सल्तनत की बक़ा चाहते हो तो फिर इस नबी की बैअत कर लो और मुसलमान हो जाओ। (ये सुनना था कि) फिर वो लोग वहशी गधों की तरह दरवाज़ों की तरफ़ दौड़े (मगर) उन्हें बन्द पाया। आख़िर जब हिरक़्ल ने (उस बात से) उन की ये नफ़रत देखी और उनके ईमान लाने से मायूस हो गया तो कहने लगा कि उन लोगों को मेरे पास लाओ। (जब वो दोबारा आए) तो उसने कहा मैंने जो बात कही थी उस से तुम्हारी दीनी पुख़्तगी की आज़माइश मक़सद थी सौ वो मैंने देख ली। तब (ये बात सुन कर) वो सबके सब उसके सामने सजदे में गिर पड़े और उस से ख़ुश हो गए। आख़िर में हिरक़्ल की आख़िरी हालत ये ही रही। अबू-अब्दुल्लाह कहते हैं कि इस हदीस को सालेह-बिन-कैसान यूनुस और मअमर ने भी ज़ोहरी से रिवायत किया है! 







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